श्रीमद भगवत गीता के अनमोल वचन
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने नित्य सिद्ध देह को प्रकट करता हूं। मैं अपने एकांत भक्तों के परित्राण, दुष्टों के विनाश एवं धर्म की स्थापना के लिए युग युग में प्रकट होता हूं।
कोई पुरुष किसी काल में एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता है। सभी पुरुष स्वभाव से उत्पन्न राग द्वेष आदि गुणों के अधीन होकर कर्म में प्रवृत्त होते हैं।
हे अर्जुन! जो व्यक्ति मन के द्वारा इंद्रियों को वशीभूत कर फल की कामना से रहित होकर, कर्म इंद्रियों से शास्त्र विहित कर्मों का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है।
तुम संध्या उपासना आदि नित्य कर्म करो, क्योंकि कोई कर्म नहीं करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कोई कर्म नहीं करने से तो तुम्हारा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
श्रेष्ठ पुरुष जिस प्रकार आचरण करते हैं, अन्य लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं। वे जो कुछ भी प्रमाणित करते हैं अन्य लोग भी उनका अनुवर्तन करते हैं।
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