Quotes from Bhagavad Gita in Hindi : भगवान श्री कृष्ण की जय हो। आज हम भगवत गीता के प्रसिद्ध कोट्स (अनमोल वचन) पढ़ेंगे। श्री भगवान के द्वारा ये उपदेश महाभारत की कुरुक्षेत्र रणभूमि में अर्जुन को दिए गए थे। इन सभी उपदेशों को संजय के द्वारा सुना गया था। संजय ने ये उपदेश धृतराष्ट्र व उनकी पत्नी को सुनाएं थे।
लाखो वर्ष बीत जाने के बाद भी भगवत गीता के अनमोल वचन दुनिया के हर एक क्षेत्र में अपना महत्व रखते हैं। भगवत गीता पर आज बहुत अनेकों भाषाओं में प्रतिलिपि या बन चुकी है। बिज़नस दुनिया के लिए भगवत गीता बहुत अच्छे संदेश देती है।
इस पोस्ट में हम श्री भगवान के द्वारा बताए गए उपदेशों को ही संकलित करेंगे जो असल में भगवत गीता में वर्णित हैं। हमने किसी भी उपदेश के साथ कोई भी छेड़खानी नहीं की है। हमें पूरा विश्वास एवं उम्मीद है कि आप इन उपदेशों (Quotes from Bhagavad Gita in Hindi) को पढ़ने के बाद बहुत कुछ सीखेंगे।
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भगवत् गीता के प्रसिद्ध उपदेश 1 से 20 तक (Bhagavad Gita Quotes in Hindi from 1 to 20)
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।

- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने नित्य सिद्ध देह को प्रकट करता हूं। मैं अपने एकांत भक्तों के परित्राण, दुष्टों के विनाश एवं धर्म की स्थापना के लिए युग युग में प्रकट होता हूं।
- कोई पुरुष किसी काल में एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता है। सभी पुरुष स्वभाव से उत्पन्न राग द्वेष आदि गुणों के अधीन होकर कर्म में प्रवृत्त होते हैं।
- हे अर्जुन! जो व्यक्ति मन के द्वारा इंद्रियों को वशीभूत कर फल की कामना से रहित होकर, कर्म इंद्रियों से शास्त्र विहित कर्मों का आचरण करता है वह श्रेष्ठ है।
- तुम संध्या उपासना आदि नित्य कर्म करो, क्योंकि कोई कर्म नहीं करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कोई कर्म नहीं करने से तो तुम्हारा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
- श्रेष्ठ पुरुष जिस प्रकार आचरण करते हैं, अन्य लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं। वे जो कुछ भी प्रमाणित करते हैं अन्य लोग भी उनका अनुवर्तन करते हैं।

- जिस प्रकार से मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है उसी प्रकार जीव आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर नए शरीर को धारण करती है।
- जिसने जन्म ग्रहण किया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत व्यक्ति का जन्म भी निश्चित है। अतः इस अपरिहार्य विषय में तुम्हारा शोक करना उचित नहीं है।
- दुर्योधन आदि महारथी तुम्हें भययुक्त होकर युद्ध से पलायन करने वाला समझेंगे। अतः जिनके निकट तुम इतने दिनों तक बहुसम्मानित हुए हो, वे ही तुम्हें तुछ समझेंगे।
- स्वधर्म विहित कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, किंतु उस कर्म के फल में तुम्हारा अधिकार नहीं है। तुम स्वयं को न तो कर्म के फल का कारण मानो और न ही कभी कर्म के नहीं करने में आसक्त होओ।
- जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूप सघन वन को पार कर जाएगी, तब तुम सुनने योग्य और सुने हुए विषयों के प्रति वैराग्य प्राप्त करोगे।

- जो व्यक्ति सर्वत्र स्नेह रहित होते हैं और अनुकूल की प्राप्ति से न तो प्रसन्न होते हैं और ना ही प्रतिकूल की प्राप्ति होने पर उसका द्वेष करते हैं, उनकी बुद्धि स्थिर है।
- क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से स्मृति का नाश, स्मृति नाश होने से बुद्धि का नाश और बुद्धि नाश होने से सर्वनाश होता है। अर्थात वह पुनः भवसागर में पतित हो जाता है।
- तुम अनासक्त होकर निरंतर कर्तव्य कर्म का आचरण करो क्योंकि अनासक्त होकर कर्म का आचरण करने से पुरुष मोक्ष प्राप्त करता है।
- इस लोक में ज्ञान की समान पवित्र और कुछ भी नहीं है। निष्काम कर्म योग में सम्यक व्यक्ति उस ज्ञान को कालक्रम से स्वयं ही अपने हृदय में प्राप्त करते हैं।
- अज्ञ, श्रद्धाविहीन और संशय युक्त व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है। संशय युक्त व्यक्ति के लिए न तो यह लोक है, न ही परलोक हैं और सुख भी नहीं है।

- ब्रह्म में अवस्थित ब्रह्मवेत्ता पुरुष स्थिर बुद्धि वाले और मोह रहित होते हैं। वे प्रिय वस्तु को प्राप्त कर हर्षित नहीं होते हैं और अप्रिय वस्तु को प्राप्त कर उद्विग्न भी नहीं होते हैं।
- मनुष्य अनासक्त मन के द्वारा आत्मा का संसार से उद्धार करे, अपनी आत्मा की अधोगति ना होने दें क्योंकि मन ही अपना बंधु है और मन ही अपना शत्रु है।
- है कौन्तेय! प्रलय काल में समस्त भूत मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं तथा पुनः सृष्टि काल में मैं उन सभी का विशेष भाव से सृजन करता हूं।
- हे अर्जुन! मैं श्राद्ध का अन्श हूं, मैं औषधि हूं, मैं मंत्र हूं, मैं अग्नि हूं, मैं घृत हूं, मैं होम हूं। मैं ही जगत का माता, पिता, धाता और पितामह हूं। मैं ओंकार (ओम्) हूं एवं मैं ही ऋक्, साम, यजुर्वेद आदि हूं। मैं ही आधार एवं अव्यय बीज हूं, मैं ही ताप प्रदान करता हूं, वर्षा देता हूं तथा उसका आकर्षण करता हूं। मैं अमृत हूं मैं मृत्यु हूं, तथा स्थूल हूं और मैं सूक्ष्म हूं। मैं ही सब वस्तु हूं।
- है कौन्तेय! जो लोग श्रद्धा पूर्वक अन्य देवताओं की आराधना करते हैं, वे भी अविधिपूर्वक मेरी ही अराधना करते हैं।
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भगवत् गीता के प्रसिद्ध उपदेश 21 से 40 तक (Bhagavad Gita Quotes in Hindi from 21 to 40)

- मैं सभी भूतों में समान हूं। न तो कोई मेरा अप्रिय है और ना ही प्रिय है, किंतु जो भक्तिपूर्वक मुझे भजते हैं, वे जिस प्रकार मुझ में आसक्त हैं, मैं भी उनमें उसी प्रकार आसक्त रहता हूं।
- हे प्रभू! यदि आप ऐसा मानते हैं कि मेरे द्वारा आपके उस ऐश्वर्यमय रूप को देखना संभव है तो हे योगेश्वर! आप मुझे अपना अविनाशी रूप को दिखाएं।
- श्री भगवान ने कहा – हे पार्थ! मेरे नाना प्रकार एवं अनेकों वर्णन तथा आकृति सम्पन्न सैकड़ों हजारों दिव्य रूपों को देखो।
- उस समय अर्जुन ने देवों के देव विश्वरूप के उस विराट शरीर में अनेक रूपों में विभक्त समग्र विश्व को एकत्र स्थित देखा।
- श्री भगवान ने कहा – मैं लोगों का नाश करने वाला अत्युत्कट काल हूं और लोगों का संहार करने के लिए भी अभी प्रवृत्त हुआ हूं। प्रतिपक्ष में जो योद्धा गण हैं, वे तुम्हारे द्वारा हत हुए बिना भी जीवित नहीं रहेंगे।

- अर्जुन ने कहा – हे देव! मैं आपके शरीर में समस्त देवताओं, अनेक जीव समुदाय, कमलासन पर विराजमान ब्रह्मा, शिव, सभी दिव्य ऋषियों तथा सर्पों को देख रहा हूं।
- अतः तुम उठो और शत्रुओं को जीतकर कीर्ति लाभ करो एवं समृद्ध राज्य का भोग करो। ये समस्त योद्धा गण मेरे द्वारा पूर्व ही निहत हो चुके हैं। अतः हे अर्जुन! तुम निमित्त पात्र बन जाओ।
- मेरे द्वारा पूर्व ही विनाश प्राप्त द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य अन्य वीर योद्धाओं का भी तुम वध करो, व्यथित मत होओ। तुम युद्ध में शत्रुओं को जीतोगे, अतः युद्ध करो।
- हे भगवन्! आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चंद्र, प्रजापति तथा ब्रह्मा के भी पिता हैं। अतः आपको मेरा हजारों बार नमस्कार है, पुनः पुनः नमस्कार है।
- श्री भगवान ने कहा – जो निर्गुणा श्रद्धा के साथ मेरे श्याम सुंदर स्वरूप में मनो निवेश करके अनन्य भक्ति सहित यंत्र मेरी वासना करते हैं। वे श्रेष्ठ योग विद हैं यही मेरी अभिमत है।

- हे अनुपम प्रभाव विशिष्ट! आप इस चला चल विश्व के पिता, पूज्य, गुरु और गुरु श्रेष्ठ हैं। तीनों लोकों में जब आप के समान ही कोई नहीं तो भला आपसे बढ़कर कहां से होगा?
- श्री भगवान ने कहा – तुमने मेरे जो इस अत्यंत दुर्लभ रूप का दर्शन किया, देवगण भी इसके दर्शन की नित्य अभिलाषा करते हैं।
- तुमने जिस रूप में मुझे देखा, इस रूप में न वेद, तपस्या तथा दान के द्वारा और ना ही यज्ञ के द्वारा दर्शनीय हूं।
- हे पांडव – जो मेरे लिए ही कर्म करते हैं, मेरे परायण हैं, मेरे श्रवण कीर्तन आदि भक्ति के विविध रंगों का पालन करने वाले हैं, आसक्ति रहित है तथा सभी भूतों के प्रति राग द्वेष रहित हैं वह मुझे प्राप्त करते हैं।
- जो लोग समस्त कर्म मेरी प्राप्ति के लिए अर्पित कर मेरे परायण होकर अनन्य भक्ति योग से मेरा ध्यान करते हुए मुझे भजते हैं, हे पार्थ! मुझ में आसक्त चित्त उन लोगों को शीघ्र ही मैं इस मृत्यु रूप संसार सागर से पार कर देता हूं।

- यह जीवात्मा कभी भी न तो जन्म लेता है और ना ही कभी मरता है। पुनः पुनः इसकी उत्पत्ति या वृद्धि नहीं होती है। यह अजन्मा, नित्य शाश्वत और प्राचीन होने पर भी नित्य नवीन है। शरीर के नष्ट होने पर भी जीवात्मा का विनाश नहीं होता है।
- जो लौकिक प्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर हर्षित नहीं होते हैं और न अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर द्वेष करते हैं, जो प्रिय वस्तु के नष्ट होने पर शोक नहीं करते हैं और अप्राप्त वस्तु की आकांक्षा भी नहीं करते हैं जो पाप तथा पुण्य दोनों का परित्याग करने वाले हैं एवं जो मेरे प्रति भक्तिमान हैं, वे भक्त ही मेरे प्रिय हैं।
- जिस प्रकार शरीरधारी जीवात्मा इस स्थूल शरीर में क्रमशः कुमार अवस्था, यौवना अवस्था तथा वृद्धावस्था प्राप्त करता है उसी प्रकार मृत्यु उपरांत जीवात्मा को अन्य शरीर प्राप्त होता है। धीर व्यक्ति इस विषय में अर्थात शरीर के नाश व उत्पत्ति के विषय में मोहित नहीं होते हैं।
- हे पुरुषोत्तम! जो धीर व्यक्ति मात्रा – स्पर्श सुख एवं दुख आदि को समान समझते हैं और इनके द्वारा विचलित नहीं होते हैं वे निश्चय ही मुक्ति प्राप्त करने के योग्य होते हैं।
- इस जीवात्मा को न तो शास्त्रों के द्वारा छेदा जा सकता है, न आग के द्वारा जलाया जा सकता है और न ही जल के द्वारा भी भिगोया जा सकता है और ना ही वायु के द्वारा सुखाया जा सकता है।
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भगवद् गीता के प्रसिद्ध उपदेश 41 से 64 तक (Bhagavad Geeta Quotes in Hindi from 41 to 64)

- दूसरी ओर यदि तुम यह धर्म युद्ध नहीं करोगे तो स्वधर्म व कीर्ति को खोकर पाप का अर्जन करोगे।
- बुद्धि योग से युक्त व्यक्ति इस जन्म में ही सुकृत और दुष्कृत दोनों का परित्याग करते हैं। अतः तुम निष्काम कर्म योग के लिए चेष्टा करो। समभाव के साथ बुद्धि योग्य आश्रय में कर्म करना ही कर्म योग का कौशल है।
- जो मनुष्य सभी कामनाओं का परित्याग करते हुए स्पृहाशून्य, अहंकार रहित और ममता शून्य होकर विचरण करते हैं, वे शांति प्राप्त करते हैं।
- सभी जीव अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वर्षों से होती है। यज्ञ से वर्षा होती है और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।
- सभी प्रकार के कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किए जाते हैं परंतु अहंकार से मोहित चित्तवाला व्यक्ति ऐसा मान लेता है कि मैं कर्ता हूं।

- जिस प्रकार सर्वव्यापी तथा अपरिसीम होने पर भी वायु सदा ही आकाश में स्थित है उसी प्रकार समस्त भूत मुझ में अवस्थित हैं।
- हे अर्जुन! जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि काष्ठ आदि ईंधन को भस्म कर देती है उसी प्रकार ज्ञान रूप अग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है।
- यह चंचल और अस्थिर मन जिन जिन विषयों की ओर भागता है, मन को उन उन विषयों से निगृहीतकर आत्मा में ही स्थिर करेंगे।
- हे पार्थ! मुझे सभी भूतों का नित्य कारण जानो। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि तथा तेजस्वियों का तेज हूं।
- योग माया द्वारा आवृत मैं सभी को दृष्टिगोचर नहीं होता हूं। अज्ञानी मानव गण जन्म रहित तथा नित्य मुझे नहीं जान पाते हैं।

- इंद्रियों को श्रेष्ठ कहा जाता है। मन इंद्रियों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, किंतु बुद्धि मन से भी श्रेष्ठ हैं एवं जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है, वह आत्मा है।
- हे अर्जुन! सृष्टि के आरंभ में समस्त जीव इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दुःख आदि द्वंद्व विषयों से सम्यकरूपेण मोहित होते हैं।
- जिन पुण्य कर्मकारी लोगों का पाप नष्ट हो गया है वे सुख-दुःख आदि मोह से मुक्त होकर अविचलित मन से मुझे भजते हैं।
- जो अंतिम काल में भी मुझे ही समरण करते हुए अपने शरीर को त्यागकर प्रस्थान करते हैं, वे मेरे भाव को प्राप्त होते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।
- हे कोन्तेय! जो अंत काल में जिस जिस विषय की चिंता करते हुए शरीर त्याग करते हैं, सर्वदा उसी के चिंतन में तन्मय वे उसी भाव को प्राप्त होते हैं।

- महा अनुभव गुरुजन को न मारकर इस संसार में भिक्षान्न के द्वारा भी जीवन यापन करना कल्याणकारी है। किंतु गुरु जन की हत्या करने से इस लोक में ही रक्त रंजित अर्थ और काम रूप भोगों को भोगना होगा।
- अग्नि, ज्योति, शुभदिन, शुक्ल पक्ष, 6 मासरूप उत्तरायण काल – इन समस्त कालों के अभिमानी देवताओं के मार्ग में जो समस्त ब्रह्मविद व्यक्ति प्रयाण करते हैं वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
- जो मुझे अनादि, जन्म रहित और सभी लोकों के महेश्वर के रूप में जानते हैं, वे मनुष्य में मोहशून्य होकर भी सभी पापों से मुक्त होते हैं।
- हे पार्थ! तुम इस प्रकार नपुसंकता को मत प्राप्त होओ। तुम्हें यह शोभा नहीं देता है। तुम इस क्षुद्र हृदय की दुर्बलता का परित्याग करते हुए युद्ध के लिए खड़े होओ।
- अर्जुन ने कहा – हे शत्रु दमनकारी मधुसूदन! मैं किस प्रकार इस युद्ध में पूजनीय भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के विरुद्ध बाणों के द्वारा युद्ध करूंगा?

- श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! निःसंदेह मन चंचल और कठिनाइयों से वश में होने वाला है, किंतु हे कुंती पुत्र! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा यह वश में हो जाता है।
- स्वभाविक शौर्य धर्म का परित्याग कर कायरता रूप धर्म से अभिभूत, धर्म के निरूपण में मोहित चित्तवाला मैं आपको पूछता हूं – मेरे लिए जो मंगलकारी है वह निश्चय कर आप कहें। मैं आपका शिष्य हूं। अत: मुझ शरणागत को आप शिक्षा प्रदान करें।
- श्री भगवान ने कहा – तुम नहीं सोचने योग्य वस्तुओं (व्यक्तियों) के लिए शोक कर रहे हो, पुनः पांडित्य पूर्ण वचन भी कह रहे हो। किंतु, पंडितगण न तो प्राण हीन है और न ही प्राणवालों के लिए शौक करते हैं।
- हे अर्जुन! मैं सभी जीवो के हृदय में स्थित अंतर्यामी हूं तथा मैं ही सभी जीवो की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कारण हूं।
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निष्कर्ष
श्रीमद्भागवत गीता के ये अनमोल वचन जिंदगी में एक नई राह व नई सीख देते हैं। हमें पूरा विश्वास है कि आपने आज की इस पोस्ट (Quotes from Bhagavad Gita in Hindi) से बहुत कुछ सीखा होगा।
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