Chanakya niti chapter 13th & 14th in Hindi: आज इस अध्याय में हम आचार्य चाणक्य के द्वारा लिखी गई चाणक्य नीति की बातों के अध्याय 13 व 14 को पढ़ेंगे। आचार्य के द्वारा लिखी गई यह बातें लगभग 2400 वर्ष पुरानी है। परंतु इतना समय बीत जाने के बाद भी उनकी नीति की बातें हमारे इस वर्तमान समाज में भी लागू होती हैं।
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चाणक्य नीति अध्याय 13वां (Chanakya niti in Hindi chapter 13th)
आचार्य चाणक्य की पुस्तक में लिखे गए अध्याय 13 की बातों को हमने यहां पर संग्रह किया है। आचार्य व्यक्ति को सांसारिक जीवन से संबंधित चीजों का ज्ञान लेते हैं। आप भी इन बातों को पढिए।
- उत्तम कर्म से मनुष्यों को मुहूर्त भर का जीना भी श्रेष्ठ है। दोनों लोगों के विरोधी दुष्ट क्रम से पल भर भी जीना उत्तम नहीं है।
- गई वस्तु का शौक और भावी की चिंता नहीं करनी चाहिए। कुशल लोग वर्तमान काल के अनुरोध से प्रवृत्त होते हैं।
- निश्चय है कि देवता सत्पुरुष और पिता ये प्रकृति से संतुष्ट होते हैं, पर बंधु स्नान और पान से और पंडित प्रिय वचन से संतुष्ट होते हैं।
- आयुर्दाय, कर्म, विद्या, धन और मरण यह पांच जब जीव गर्भ में रहता है उसी समय लिखे जाते हैं।
- आश्चर्य है कि महात्माओं के विचित्र चरित्र हैं। लक्ष्मी को तृण समान मानते हैं, यदि मिल जाती है तो उसके भार से नम्र हो जाते हैं।
- जिसको किसी में प्रीति रहती है उसी को भय होता है। स्नेही दुख का भाजन है और सब दुख का कारण स्नेह ही है इस कारण उसे छोड़कर सुखी होना उचित है।
- आने वाले दुख के पहले से उपाय करने वाला और जिसकी बुद्धि में भी विपत्ति आ जाने पर शीघ्र ही उपाय भी आ जाता है, ये दोनों सुख से आगे बढ़ते हैं। और जो सोचता है कि भाग्यवश से जो होने वाला है अवश्य ही अच्छा होगा, वह नष्ट हो जाएगा।
- यदि धर्मात्मा राजा हो तो प्रजा भी धर्मी होती है यदि पापी हो तो प्रजा भी पापी होती है। सब प्रजा राजा के अनुसार चलती हैं, जैसा राजा होता है वैसी प्रजा भी होती है।
- धर्म रहित जीते हुए को मृतक के समान समझता हूं, निश्चय है कि धर्मयुत मरा भी पुरुष चिरंजीवी है।
- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनमें से जिस को एक भी नहीं चाहिए, बकरी के गल के स्थन के समान उसका जन्म निरर्थक है।
- दुर्जन दूसरे की कृतिरूप दु:सह्र अग्नि से जलकर उसके पद को नहीं पाते इसलिए उसकी निंदा करने लगते हैं।
- विषय में आसक्त मन बन्ध का हेतू है, विषय से रहित मुक्ति का। मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण मन ही है।
- परमात्मा के ज्ञान से, देह के अभिमान के नाश हो जाने पर जहां जहां मन जाता है वहां वहां समाधि ही है।
- मन का अभिलाषी सब सुख किसको मिलता है, जिस कारण सब देव के वश है इससे संतोष पर भरोसा करना उचित है।
- जैसे सहस्त्र धेनु के रहते बछड़ा अपनी माता ही के पास जाता है, वैसे ही कुछ कर्म किया जाता है तो उसका फल कर्ता ही को मिलता है।
- जिसके कार्य की स्थिरता नहीं रहती वह न जन में और न वन में सुख पाता है। जन उसको संसर्ग से जराता है और वन संग के त्याग से जराता है।
- जैसे खनन के साधन से खनके नर पाताल के जल को पाता है। वैसे ही गुरुगत विद्या को सेवक शिष्य पाता है।
- यद्यपि फल पुरुष के कर्म के अधीन रहता है और बुद्धि भी कर्म के अनुसार ही चलती है। तथापि विवेकी महात्मा लोग विचार करके ही काम करते हैं।
- स्त्री, भोजन और धन इन तीनों में संतोष करना उचित है। पढ़ना, तप और दान इन तीनों में संतोष कभी नहीं करना चाहिए।
- जो एक अक्षर भी देने वाले गुरु की वंदना नहीं करता। वह कुत्ते की सौ योनि को भोगकर चांडालों में जन्मता है।
- युग के अंत में सुमेरू चलाय मान होता है और कल्प के अंत में सातों सागर, परंतु साधु लोग स्वीकृत अर्थ से कभी नहीं विचलते।
चाणक्य नीति (Chanakya niti) का अध्याय 13 यहीं समाप्त होता है। अब हम चाणक्य नीति के अध्याय 14 की तरफ बढ़ेंगे।
चाणक्य नीति अध्याय 14वां (Chanakya niti in Hindi chapter 14th)
आचार्य चाणक्य के द्वारा लिखी गई चाणक्य नीति के अध्याय 14 की बातों को हमने यहां पर संकलित किया है जिन्हें पढ़कर आप बहुत कुछ सीखेंगे।
- पृथ्वी में जल, अन्न और प्रिय वचन ये तीन ही रत्न हैं। मूर्खों ने पाषाण के टुकड़ों में रत्न की गिनती की है।
- जीवों को अपने अपराध रूप वृक्ष के दरिद्रता, रोग, दुख, बंधन और विपत्ति फल होते हैं।
- धन, मित्र, स्त्री और पृथ्वी ये फिर मिलते हैं किंतु मनुष्य शरीर बार-बार नहीं मिलता।
- निश्चय है कि बहुत जनों का समुदाय शत्रु को जीत लेता है। तृण समूह वृष्टि की धारा के धरने वाले मेघ का निवारण करता है।
- जल में तेल, दुर्जन में गुप्त वार्ता, सुपात्र में दान और बुद्धिमान में शास्त्र ये थोड़े भी हो तो भी वस्तु की शक्ति से अपने आप से विस्तार को प्राप्त हो जाते हैं।
- धर्म विषयक कथा के, शमशान पर और रोगियों को जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह यदि सदा रहती है तो कौन बंधन से मुक्त नहीं होता।
- निंदित कर्म करने के पश्चात पछताने वाले पुरुष को जैसी बुद्धि उत्पन्न होती है वैसी बुद्धि यदि पहले होती तो किस को बड़ी समृद्धि ना होती।
- दान में, तप में, शूरता में, विज्ञता में, सुशीलता में और नीति में विस्मय नहीं करना चाहिए क्योंकि पृथ्वी में बहुत रत्न है।
- जो जिसके हृदय में रहता है वह दूर भी हो तो भी वह दूर नहीं है। जो उसके मन में नहीं है वह समीप भी हो तो भी वह दूर है।
- जिससे प्रिय की वांछा हो उसे सदा प्रिय बोलना उचित है। व्याघ मृग के वध के लिए मधुर स्वर में संगीत गाता है।
- अत्यंत निकट रहने पर विनाश के हेतु होते हैं। दूर रहने से फल नहीं देते, इस हेतु राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री उनको मध्यम अवस्था से सेवन करना चाहिए।
- आग, जल, स्त्री, मूर्ख, सांप और राजा के कुल सदा सावधानता से सेवन के योग्य है। ये 6 शीघ्र प्राण के हरने वाले होते हैं।
- वही जीता है जिसके गुण हैं और वही जीता है जसका धर्म है। गुण और धर्म से हीन पुरुष का जीना व्यर्थ है।
- जो एक ही कर्म से जगत को वश में करना चाहता है तो पहले 15 के (आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, मुख, हाथ, पांव, लिंग, गुदा, रूप, शब्द, रस, गंध, स्पर्श) उनके मुख से मन को निवारण करो।
- प्रसंग के योग्य वाक्य, प्रकृति के समान प्रिय और अपनी शक्ति के अनुसार कोप को जो जानता है वही बुद्धिमान है।
- एक ही देहरूप वस्तु तीन प्रकार की दिखाई पड़ती है। योगी लोग उसको अतिनिन्दित मृतक रूप से, कामी पुरुष कांतारूप से, कुत्ते मांस रूप से देखते हैं।
- सिद्ध औषध, धर्म अपने घर का, मैथुन, कुअन्न का भोजन और निंदित वचन इनका प्रकाश करना बुद्धिमान को उचित नहीं है।
- तवलौं कोकिल मौन साधना से दिन बिताती है। जबलो सब जनों को आनंद देने वाली वाणी का प्रारंभ नहीं करती है।
- धर्म, धन, धान्य, गुरु का वचन और औषध यदि यह सुगृहीत हों तो तोइन को भली-भांति से करना चाहिए जो ऐसा नहीं करता वह नहीं जीता।
- खल का संग छोड़, साधु की संगति स्वीकार कर, दिन रात पुण्य क्रिया कर और ईश्वर का नित्य स्मरण कर क्योंकि संसार अनित्य है।
मुझे उम्मीद है दोस्तों आपको यह चाणक्य नीति (Chanakya niti) की पुस्तक के अध्याय 13 व 14 पसंद आए होंगे। आपने जो भी इन अध्याय से सीखा वह आप मुझे नीचे कमेंट करके जरूर बताइएगा। यहां तक पढ़ने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
चाणक्य नीति के अन्य अध्याय –
चाणक्य नीति का अध्याय | चाणक्य नीति का अध्याय |
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पांचवा व छठा | सातवां व आठवां |
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