भगवत गीता के अनमोल वचन
ब्रह्म में अवस्थित ब्रह्मवेत्ता पुरुष स्थिर बुद्धि वाले और मोह रहित होते हैं। वे प्रिय वस्तु को प्राप्त कर हर्षित नहीं होते हैं और अप्रिय वस्तु को प्राप्त कर उद्विग्न भी नहीं होते हैं।
मनुष्य अनासक्त मन के द्वारा आत्मा का संसार से उद्धार करे, अपनी आत्मा की अधोगति ना होने दें क्योंकि मन ही अपना बंधु है और मन ही अपना शत्रु है।
है कौन्तेय! प्रलय काल में समस्त भूत मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं तथा पुनः सृष्टि काल में मैं उन सभी का विशेष भाव से सृजन करता हूं।
हे अर्जुन! मैं श्राद्ध का अन्श हूं, मैं औषधि हूं, मैं मंत्र हूं, मैं अग्नि हूं, मैं घृत हूं, मैं होम हूं। मैं ही जगत का माता, पिता, धाता और पितामह हूं। मैं ओंकार (ओम्) हूं एवं मैं ही ऋक्, साम, यजुर्वेद आदि हूं। मैं ही आधार एवं अव्यय बीज हूं, मैं ही ताप प्रदान करता हूं, वर्षा देता हूं तथा उसका आकर्षण करता हूं। मैं अमृत हूं मैं मृत्यु हूं, तथा स्थूल हूं और मैं सूक्ष्म हूं। मैं ही सब वस्तु हूं।
है कौन्तेय! जो लोग श्रद्धा पूर्वक अन्य देवताओं की आराधना करते हैं, वे भी अविधिपूर्वक मेरी ही अराधना करते हैं।
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