भगवत गीता के उपदेश
अविवेकी मूढ़ लोग देह जाने के समय अथवा रहते समय अथवा विषय भोग के समय इंद्रियों से समन्वित इस जीव को नहीं देख पाते हैं किंतु विवेकी लोग इसे देख पाते हैं।
इंद्रियों का स्वामी देही जीव जिस शरीर को प्राप्त करता है और जिस शरीर से बहिर्गत होता है, अपनी छह इंद्रियों के साथ उसी प्रकार का गमन करता है जिस प्रकार वायु पुष्प आदि से गंध लेकर गमन करती है।
यह जीव कान, आंख, त्वचा, जीह्वा, नासिका और मन का आश्रयकर शब्द विषयों का उपभोग करता है।
मैं सभी प्राणियों के हृदय में अंतर्यामी के रूप में प्रविष्ट हूं। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान तथा दोनों का नाश होता है। सभी वेदों में एकमात्र मैं ही जानने योग्य हूं। मैं ही वेदांतकर्ता हूं और वैदज्ञ हूं।
हे अर्जुन! जो इस प्रकार मोहशून्य होकर मुझे पुरुषोत्तम जानते हैं, वे सर्वज्ञ हैं एवं सभी प्रकार से मुझे ही भजते हैं।